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    सुख" की अत्यधिक चाह भी बनता है दुख का कारण ,आचार्य श्री राम शर्मा जी

      
    गोला गोरखपुर! बांसगांव संदेश! 

    "सुख" की अत्यधिक चाह भी दुःख का एक कारण है । हर  समय, हर क्षण तथा हर परिस्थिति में सुख के लिए लालायित रहना एक निकृष्ट, हीन भावना है । इस क्षण-क्षण परिवर्तनशील तथा द्वंद्वात्मक संसार में हर समय सुख कहाँ ? जो संभव नहीं उसकी कामना करना असंगति ही नहीं अबुद्धिमत्ता भी है । दुःख उठाकर ही सुख पाया जा सकता  है, साथ ही दुःख के अत्यंत अभाव में सुख का कोई मूल्य-महत्व भी नहीं है । विश्रांति के बाद ही विश्राम का मूल्य है । भूख प्यास से विकल होने पर ही भोजन का स्वाद है ।
    जिस प्रकार अवश्यकता को अविष्कार की जननी कहा जाता है, उसी प्रकार "दुःख" को "सुख" का जनक मानक मान लिया जाए, तो अनुचित न होगा । जिसके सम्मुख दुःख आते हैं, वही तो सुख के लिए प्रयत्न करता है । जिसने गरीबी से टक्कर ली है, वही अर्थाभाव दूर करने के लिए अग्रसर होगा । "दुःख-तकलीफ" ही पुरुषार्थी व्यक्ति को क्रियाशीलता की ओर बढ़ाती है, उस पर पानी चढ़ाती है अन्यथा मनुष्य निकम्मा-निर्जीव होकर मृतक तुल्य बनकर ही रह जाए ।सुख में अत्यधिक प्रसन्न होना, हर्षित होना भी दुःख का एक विशेष कारण है । यह साधारण नियम है कि जो अनुकूल परिस्थितियों में खुशी से पागल जो उठेगा, उसी अनुपात में प्रतिकूल परिस्थितियों में दुःखी होगा ।सुख प्रसन्नता का कारण होता है किंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि आप उसमें इतना प्रसन्न हो जाए कि आपकी अनुभूतियाँ सुख की ही गुलाम बनकर रह जाएँ

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