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    गोरखपुर की दरगाहें : निगाहे वली में तासीर... बदलती हज़ारों की तकदीर*

    *गोरखपुर की दरगाहें : निगाहे वली में तासीर... बदलती हज़ारों की तकदीर*

    गोरखपुर। 

    "निगाहे वली में वो तासीर (असर) देखी। 
    बदलती हज़ारों की तकदीर देखी।"
    कुछ ऐसी ही तासीर है सरजमींने गोरखपुर के वलियों (सूफी-संतों) की निगाहों में। जिनकी एक निगाह बंदें पर पड़ जाए तो अल्लाह की रहमत जोश में आ जाए। यह दुआ कर दें तो अल्लाह अपने फ़ज़ल से उस दुआ को तुरंत कबूल कर ले। गोरखपुर हमेशा से वलियों का गहवारा रहा है। इन वलियों ने समाज में फैली बुराईयों को खत्म कर एकता व भाईचारगी का पैग़ाम दिया। इंसानियत को ज़िंदा रखने में इनकी अहम भूमिका है। आज भी इन वलियों का फैज बदस्तूर जारी है। इनकी दरगाहों, आस्तानों व मजारों पर हर मजहब के मानने वालों का तांता लगा रहता है। लोग इनके वसीले से दिली मुरादें पाते है। शहर के हर हिस्से में सैकड़ों वलियों, शहीदों की मजारें हैं। 

    👉 *दरगाह हज़रत सालार मसऊद गाजी मियां उर्फ बाले मियां* 
    हज़रत सैयद सालार मसऊद गाजी मियां अलैहिर्रहमां जनसामान्य में बाले मियां के नाम से जाने जाते है। बहरामपुर में हर साल ज्येष्ठ (जेठ) के महीने में यहां मेला लगता हैं जहां पर आस-पास के क्षेत्रों के अलावा दूर दराज से भारी संख्या में अकीदतमंद यहां आते हैं। एक माह तक चलने वाले मेले के मुख्य दिन अकीदतमंदों द्वारा पलंग पीढ़ी, कनूरी आदि चढ़ा कर मन्नतें मांगी जाती है। इस मेले को पूर्वांचल की गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल माना जाता है। हर साल लगन की रस्म पलंग पीढ़ी के रूप में मनायी जाती है। ऐतिहासिक प्रमाणों के मुताबिक हज़रत सैयद सालार मसऊद गाजी मियां अलैहिर्रहमां दीन-ए-इस्लाम को चौथे ख़लीफा हज़रत अली रदिल्लाहु अन्हु की बारहवीं पुश्त से हैं। गाज़ी मियां के वालिद का नाम गाज़ी हज़रत सैयद साहू सालार था। आप सुल्तान महमूद गजनवीं की फौज में कमांडर थे। सुल्तान ने साहू सालार के फौजी कारनामों को देख कर अपनी बहन सितर-ए-मोअल्ला का निकाह आप से कर दिया। जिस वक्त सैयद साहू सालार अजमेर में एक किले को घेरे हुए थे, उसी वक्त गाजी मियां 15 फरवरी 1015 ई. को पैदा हुए। चार साल चार माह की उम्र में आपकी बिस्मिल्लाह ख्वानी हुई। नौ साल की उम्र तक फिक्ह व तसव्वुफ की शिक्षा हासिल की। आप बहुत बड़े आलिम थे। आप बहुत बहादुर थे। आपकी शहादत असर व मगरिब के बीच इस्लामी तारीख 14 रज़ब 423 हिजरी में (बहुत ही कम उम्र में) हुई। आप हमेशा इंसानों को एक नजर से देखते थे। सभी से भलाई करते। दुनिया से जाने के बाद भी आपका फैज जारी है। आपका मजार शरीफ बहराइच शरीफ में है। अकीदतमंदों ने गोरखपुर में सैकड़ो साल पहले प्रतीकात्मक मजार बनायी। जो वक्फ विभाग में दर्ज है। गाजी मियां के नाम से मोहल्ला गाजी रौजा भी बसा है।


    👉 *दरगाह हज़रत मुबारक खां शहीद*

    बेतियाहाता नार्मल के निकट हज़रत मुबारक खां शहीद अलैहिर्रहमां की दरगाह है। जो शहर की सैकड़ों साल पुरानी दरगाह है। यह वक्फ विभाग में दर्ज है। ईद के चांद यानी शव्वाल माह की 26, 27, 28 को उर्स-ए-पाक मनाया जाता है। मेला लगता है। जिसमें हर मजहब के मानने वालों की शिरकत होती है। हज़रत मुबारक खां शहीद पूर्वांचल के बड़ें औलिया-ए-किराम में शुमार होते है। आज भी इस दरगाह को आला मकाम हासिल है। दरगाह से सटे एक मस्जिद, ईदगाह, मदरसा व कई वलियों की मजारें हैं। लोगों के मुताबिक हज़रत मुबारक खां हज़रत सैयद सालार मसऊद गाजी मियां अलैहिर्रहमां के खलीफा व मुरीदीन में से थे। गाजी मियां ने बुराईयों को खत्म करने के लिए आपको गारेखपुर भेजा। हक़ और बातिल की जंग में आपने बहादुरी के साथ लड़ते-लड़ते करीब 29 साल की उम्र में शहादत का जाम पिया। यहां जुमेरात व नौचंदी जुमेरात को काफी भीड़ होती है। आपके साथ आपके भाईयों ने भी शहादत पायी। जिसमें एक भाई की मजार प्रेमचंद पार्क रोड बेतियाहाता स्थित दरगाह हज़रत बाबा तबारक खां शहीद अलैहिर्रहमां के नाम से मशहूर है। जहां दो दिन उर्स-ए-पाक मनाया जाता है। अहमदनगर चक्शा हुसैन गोरखनाथ में हज़रत बाबा जलालुद्दीन शाह का उर्स ग्यारहवीं शरीफ के दिन व हज़रत बाबा मेराज शाह का उर्स ग्यारहवी शरीफ के दो दिन पहले मनाया जाता है। लोग बताते हैं कि यह दोनों बुजुर्ग हज़रत मुबारक खां शहीद के साथी थे।

    👉 *दरगाह हज़रत मुकीम शाह व मूए मुबारक*

    बुलाकीपुर स्थित दरगाह पर हज़रत दादा मियां मखदूम शाह मुकीम शाह अलैहिर्रहमां का सालाना उर्स माहे रमज़ान में मनाया जाता है। हज़रत शाह सैयद मुकीम शहर के रईस भी थे और कामिल दरवेश भी थे। आप जौनपुर शहर में इस्लामी तारीख 3 जमादिल उला 1128 हिजरी में पैदा हुए। आपके वालिद गोरखपुर तशरीफ लाये और यहीं बस गए। हज़रत शाह मुकीम पैदाइशी वली थे। आपका निधन 10 रमजानुल मुबारक 1210 हिजरी दिन मंगलवार वक्त शब-बमुताबिक 22 मार्च 1796 ई. में हुआ था। प्रत्येक वर्ष 10 रमजानुल मुबारक को दरगाह पर एशा व तरावीह की नमाज के बाद उर्स मनाया जाता है। इनके खानदान में पैगंबर-ए-इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पवित्र बाल भी है। जिसे मूए मुबारक कहा जाता है। जिसकी जियारत ईद मिलादुन्नबी के मौके पर करवायी जाती है। इनके परिवार की छह पुश्तें मुए मुबारक की जियारत करवा रही है। शाह साहब के पुत्र शाह गुलाम अहमद और उनके पुत्र अब्दुल हक थे। जो आखिरी मुगलिया शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र के अतालिक बनाये गये। उनके पुत्र हकीम शाह मुहम्मद मिनहाजुल हक के पास मूए मुबारक आया। हकीम साहब मरहूम के बेटे शाह मोहम्मद अबरारुल हक मूए मुबारक की जियारत कराते थे। इस्लामी माह बारह रबीउल अव्वल की अल सुबह कोई परहेजगार शख्स एक कोरे घड़े में दरिया-ए-राप्ती का पानी बीच धारे में जाकर लाता है। यह काम गुजिश्ता कई बरसों से मुहल्ला की मस्जिद के इमाम करा रहे हैं। उसी पानी व गुलाब को प्याले में रखकर मुए मुबारक को गुस्ल दिया जाता है। दोपहर की नमाज के बाद मिलाद होता है। उसके बाद या नबी सलाम अलैका, या रसूल सलाम अलैका के बीच जियारत करायी जाती है। यहां पर मौजूद मुए मुबारक खास कमरें में रखा गया है। जिसका दरवाजा बारह रबीउल अव्वल शरीफ में खोला जाता है। गुस्ल का पानी बतौर तबरुक दिया जाता है। यहां पर दूर-दूर से लोग जियारत करने आते है। इसके अलावा मुहल्ला दीवान बाजार में ख्वाजा सैयद अख्तर अली मरहूम के परिवार में मुए मुबारक है उसकी जियारत रबीउल अव्वल शरीफ के पहले रविवार को दोपहर की नमाज के बाद करायी जाती है। यहां पर दो मूए मुबारक रखे हुए है। मुहल्ला छोटे काजीपुर में पुराने एलआईयू आफिस के निकट मौलवी अब्दुल हन्नान के परिवार में रखे मुए मुबारक की जियारत भी बारह रबीउल अव्वल शरीफ को बाद नमाज जोहर करायी जाती है। यहां दो मुए मुबारक मौजूद है। यहां पर महिलाओं व पुरुषों दोनों को जियारत करायी जाती है। 

    👉 *मजार हज़रत शाह मारूफ, जिनके नाम पर है मोहल्ला शाह मारूफ*

    इस शहर के मशहूर रईसो में एक रईस बुजुर्ग पीरे तरीकत हज़रत सैयद शाह मारूफ अलैहिर्रहमां भी गुजरे हैं। आपका मजार मोहल्ला शाह मारूफ में है। आपका हसब नसब 28 वास्तों से हज़रत सैयदना जाफ़र तय्यार रदियल्लाहु अन्हु से जा मिलता है। आपके वालिद हज़रत सैयद शाह अब्दुर्रहमान मुगल बादशाह मुअज्जम शाह के ओहदे में गोरखपुर तशरीफ लाये और यहीं के होकर रह गए। आपकी औलादें अब भी मौजूद है। हज़रत शाह मारूफ के बेशुमार मुरीद थे। आप बहुत इबादत गुजार शरीआत पसंद थे। आपके खानदान में आपके तबरुकात आज भी मौजूद हैं जैसे जुब्बा, पगड़ी, रूमाल आदि। आपके खानदान की एक साख मोहल्ला अलीनगर में आबाद है। इमामबाड़ा के पहले मियां साहब सैयद अहमद अली ने अपनी किताब 'महबुबूत तवारीख' में आपका जिक्र बहुत शानदार तरीके से किया है - "मशायख बड़े शाह मारूफ थे, बुजुर्गी में वह शाह मारबफ थे"। आपकी वजह से पूरे मोहल्ले का नाम शाह मारूफ पड़ा।


    👉 *सब्जपोश हाउस मस्जिद में है बुजुर्गों के मजारात*

    सब्जपोश खानदान गोरखपुर का सबसे पुराना व रईस खानदान है। इस खानदान में कई वली हुए हैं। जिनकी मजारें सब्जपोश हाउस मस्जिद जाफ़रा बाज़ार में है। यहां 180 साल पुराना गिलाफ-ए-काबा, मदीना से लाया गया कदम-ए-रसूल (पैगंबर-ए-इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के कदमों का निशान) व बगदाद से लाया गया हज़रत गौसे पाक के मजार का पवित्र पत्थर मौजूद है। जिसकी जियारत ईद-उल-फित्र व ईद-उल-अजहा के मौके पर करवायी जाती है। इन पवित्र वस्तुओं को सन् 1840 ई. में मीर अब्दुल्लाह पवित्र हज यात्रा के दौरान वापसी में लेकर आये थे। सैयद दानिश अली सब्जपोश के मुताबिक उनके वंशज मीर शाह क्यामुद्दीन शाहजहां के शासन काल में गोरखपुर तशरीफ लाये और यहीं छोटा-सा रौजा व मस्जिद बनायी। यहीं पर हजरत मीर सैयद कयामुद्दीन शाह अलैहिर्रहमां (आप सौ बरस से ज्यादा जिंदा रहे। निधन इस्लामी माह 8 सफर 1128 हिजरी में हुआ) की मजार है। वहीं थोड़ी दूर पर उनके पोते मीर सैयद गुलाम रसूल का रौजा या मकबरा है। 

    👉 *दरगाह हज़रत रोशन अली शाह व मियां साहब इमामबाड़ा

    मियां बाज़ार स्थित ऐतिहासिक मियां साहब इमामबाड़े की ख्याति महान दरवेश हज़रत सैयद रोशन अली शाह अलैहिर्रहमां की वजह से है। इस्लामी माह 5 रज़ब को स्थानीय अकीदतमंदों द्वारा उर्स-ए-पाक मनाए जाने की परंपरा है। दरवेश हज़रत सैयद रोशन अली शाह बुखारा के रहने वाले थे। वह मोहम्मद शाह के शासनकाल में बुखारा से दिल्ली और फिर गोरखपुर आए। “मशायख-ए-गोरखपुर” किताब में आपकी ज़िंदगी पर विस्तृत रोशनी डाली गयी है। किताब में हैं कि आप हमेशा अल्लाह की इबादत में लगे रहते थे। अहले बैत से बहुत मुहब्बत रखते। हज़रत सैयदना इमाम हुसैन रदिअल्लाहु तआला अन्हु व उनके साथियों की नियाज-फातिहा के लिए इमामबाड़ा स्थापित किया। हज़रत सैयद रोशन अली शाह खास किस्म का पैरहन, सफेद साफा व सफेद चादर पहनते थे। खड़ाऊ पहनने की आदत थी। न गोश्त खाते थे और ही न नमक। चटाई पर बैठते थे। हिंदू के हाथ का बना खाना खाते थे। फारसी, उर्दू जानते थे मगर दस्तख़त हमेशा हिंदी में करते थे। अपने करीब एक धूनी रखती थे जो हमेशा सुलगती रहती थी। नमाज के पाबंद थे। आबिद दरवेश थे। आपने मस्जिद, पुल, कुंआ, इमामबाड़ा की मरम्मत, मुसाफिरों के लिए कुछ ठहरने की जगह, स्कूल, ग्यारहवीं शरीफ, ईद मिलादुन्नबी, मुहर्रम, बुजुर्गों का नियाज-फातिहा, उर्स, यतीमों व बेवाओं की मदद के लिए दिल खोल कर खर्च करते थे। सारी ज़िंदगी राहे खुदा में खर्च करते रहे। जिक्र व फिक्र का अभ्यास करते रहे। इमामबाड़े से बाहर आप नहीं निकलते थे। यहीं फकीरों, दरवेशों और तालिबाने हक़ का एक मजमा लगा रहता था। आपने सारी ज़िंदगी इबादत, खिदमत में गुजार दी। गोरखपुर में उन्हें अपने नाना से दाऊद-चक नामक मुहल्ला विरासत में मिला था। उन्होंने यहां इमामबाड़ा बनवाया जिस वजह से इस जगह का नाम दाऊद-चक से बदलकर इमामगंज हो गया। मियां साहब की ख्याति की वजह से इसको मियां बाजार के नाम से जाना जाने लगा। एक वाकया मशहूर है कि अवध के नवाब आसिफुउद्दौला शिकार के बेहद शौकीन थे। हाथी पर सवार शिकार करते हुए वह गोरखपुर के घने जंगलों में आ गये। इसी घने जंगल में धूनी (आग) जलाये दरवेश रोशन अली शाह बैठे थे। शिकार के दरम्यािन नवाब ने देखा एक बुजुर्ग कड़कड़ाती ठंडक में बिना वस़्त्र पहने धूनी जलाए बैठे है। उन्होंने अपना कीमती दोशाला (शाल) उन पर डाल दिया। दरवेश ने उस धूनी में शाल को फेंक दिया। यह देख कर नवाब नाराज हुआ। इस पर रोशन अली शाह ने धूनी की राख में चिमटा डाल कर कई कीमती दोशाला (शाल) निकाल कर नवाब की तरफ फेंक दिया। यह देख नवाब समझ गया कि यह कोई मामूली शख़्स नहीं बल्कि अल्लाह का वली है। नवाब आसिफुउद्दौला ने तुरंत हाथी से उतर कर मांफी मांगी। इमामबाड़े को हजरत सैयद रौशन अली शाह ने 1717 ई. में स्थापित करवाया। छह एकड़ में मरकजी इमामबाड़ा की तामीर नवाब आसिफुद्दौला ने सन् 1796 ई. में करवायी। नवाब व उसकी बेगम ने सोना-चांदी का ताजिया दिया। इसके अलावा जागीर दी। हजरत रोशन अली का सन् 1818 ई. में निधन हो गया। मगर आपका नाम हमेशा आपके कारनामों से रौशन रहेगा। हज़रत सैयद रोशन अली शाह का हुक्का, चिमटा, खड़ाऊ, दांत तथा बर्तन आदि आज भी इमामबाड़ा में मौजूद है। हजरत सैयद रोशन अली शाह ने इमामबाड़े में एक जगह धूनी जलायी थी। वह आज भी सैकड़ों वर्षाें से जल रही है। मुहर्रम माह में यहां मेला लगता है। इस दौरान यहां की रौनक देखने लायक होती है। आम दिनों में (प्रत्येक जुमेरात, जुमा) को भी अकीदतमंद मजार की जियारत कर फातिहा पढ़ते है। खासकर जुमेरात को हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के लोग मजार की जियारत करते है और हजरत रोशन अली के वसीले से अल्लाह से दुआ मांगते है। 

    *6. मजार शहीद सरदार अली कोतवाली*
    नखास स्थित कोतवाली से हर कोई वाकिफ है। यह कभी मुअज्जम अली खां की हवेली हुआ करती थी। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शहीद सरदार अली खां उनके भाई रमजान अली खां व उनके परिवार वालों की मजारे यहां हैं। शहीद सरदार अली खान पुत्र मुअज्जम अली खान अवध कोर्ट के रिसालादार यानी सैनिक कमांडर और बड़े जमींदार थे। जब 1857 में स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला भड़की तो गोरखपुर ने भी लब्बैक कहा। मोहम्मद हसन व श्रीनेत राजाओं के नेतृत्व में सरदार अली खां ने जंग लड़ी। शहीद सरदार अली खां उनके भाई रमजान अली खां व खानदान वालों को फांसी पर चढ़ा दिया गया। हवेली को कोतवाती में तब्दील कर दिया गया। यहां मजार के पास कई मजारें है जो उनके परिजनों व अन्य शहीदों की है। यहां आकर अकीदतमंद खिराजे अकीदत जरूर पेश करते हैं।

    7. मजार हजरत सैयद अब्दुल अज़ीज़ व शहीद सैयद शाह इनायत अली
    शहीद राजा सैयद शाह इनायत अली शाहपुर स्टेट के राजा थे। आपने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। बात 1867 की है। आजमगढ़ के अतरौलिया से 11 अंग्रेज अफसर गोरखपुर की सीमा में आना चाहते थे। कमांडर एलिस ने सरयू नदी पार कराने के लिए शाह को संदेशा भेजवाया और नाव उपलब्ध करने को कहा। शाह ने एक नाविक को अंग्रेज अफसरों को ले आने के लिए भेजा। उन्होंने नाविक को नदी के बीचो बीच पहुंचने पर नाव डुबाने का निर्देश दिया। नाविक ने वैसा ही किया। 11 अफसरों को नदी में डूबा कर मौत हो गई। इस घटना के बाद अंग्रेजों ने शाह को मोती जेल में फांसी दे दी। बेलघाट विकास खण्ड के शाहपुर गांव में सैयद शाह इनायत अली के शव को उनके पूर्वज सूफी-संत हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक हजरत अब्दुल अज़ीज़ शाह अलैहिर्रहमां के मकबरे के अहाते में दफना दिया गया। यहां पर 21 जिलहिज्जा को उर्स-ए-पाक मनाया जाता है। इस मजार पर हिन्दू-मुस्लिम जनता प्रत्येक जुमेरात को शीरनी मलीदा चढ़ाने आती है। दूल्हा इस दरगाह की चौखट पर हाजिरी देकर अपनी मंजिल की तरफ जाता है।

    8. दरगाह हजरत नक्को शाह बाबा 
    धर्मशाला बाजार में आपसी सौहार्द के प्रतीक हजरत अली नक्की शाह उर्फ नक्को बाबा अलैहिर्रहमां की दरगाह है। आपका निधन 3 अप्रैल 1992 ई. में शुक्रवार (अलविदा) बामुताबिक रमजानुल मुबारक की 29 तारीख को शाम 7:35 मिनट पर हुआ। आप मज्जूब थे। आप हमेशा यादे इलाही में गुम रहते थे। आपसे कई करामतें भी हुआ करती हैं। हर साल रमजानुल मुबारक में उर्स-ए-पाक मनाया जाता है। सामूहिक रोजा इफ्तार सभी मजहब के लोग मिलजुल कर करते हैं। प्रत्येक जुमेरात को काफी मजमा जुटता है।

    10. दरगाह हजरत मोहम्मद अली बहादुर शाह
    हजरत मोहम्मद अली बहादुर शाह अलैहिर्रहमां बहुत बड़े बुजुर्ग गुजरे है। आपकी दरगाह मोहल्ला रहमतनगर में है। हर साल इस्लामी माह रबीउल आखिर की 1, 2 व 3 तारीख को उर्स-ए-पाक मनाया जाता है। आप रामपुर के रहने वाले थे। अपने पीरो मुर्शीद हजरत सैयद जमाल शाह अलैहिर्रहमां के कहने पर गोरखपुर तशरीफ लाये और लोगों को अल्लाह की मोहब्बत का जाम पिलाया। आप चिश्तिया निजामिया सिलसिले के बुजुर्ग थे। आपका निधन 3 रवीउल आखिर 1330 हिजरी में हुआ। 

    12. मजार हजरत मिस्कीन शाह 
    अंधियारी बाग स्थित आस्ताना मिस्कीनिया पर हजरत मियां मोहम्मद नियाज बहादुर उर्फ मुकर्रम शाह उर्फ मिस्कीन शाह अलैहिर्रहमां की मजार है। जो मिस्कीन शाह के नाम से मशहूर है। उर्स इस्लामी माह जमादिल ऊला की 15, 16, 17 तारीख को मनाया जाता है। हजरत मिस्कीन शाह इबादत गुजार व बाकरामत बुजुर्ग थे। आप चिश्तिया निजामिया सिलसिले के बुजुर्ग थे।  

    13. मजार हजरत सूफी सैयद चिराग अली
    हजरत सूफी सैयद चिराग अली शाह अलैहिर्रहमां की मजार बसंतपुर तकिया में है। आपकी पैदाइश 9 जिलहिज्जा 1275 हिजरी में हुई। आप अल्लाह वाले होने के साथ अच्छे आलिम, शायर व नात ख्वां थे। सच्चे आशिके रसूल थे। आपने सबको शरीअत, तरीकत, मारफत व हकीकत का जाम पिलाया। आपका निधन बरोज जुमा 2 शव्वाल 1357 हिजरी को हुआ। 

    14. दरगाह हजरत मूसा शाह शहीद उर्फ रेलवे लाइन वाले बाबा
    रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नं. 2 के पास दरगाह हजरत मूसा शाह शहीद अलैहिर्रहमां है। जिन्हें रेलवे लाइन वाले बाबा के नाम से भी जाना जाता है। गोरखपुर रेलवे स्टेशन के पटरियों के बीच यह मजार करीब दो सौ साल पुरानी बताई जाती है। कहा जाता है कि जब भारत में अंग्रेज रेलवे को बढ़ावा दे रहे थे। उस वक्त गोरखपुर के इस रेलवे स्टेशन के पास भी पटरिया बिछाई जा रही थीं। दिन भर काम का नतीजा रात को सिफर में तब्दील हो जाया करता था। अधिकारी से लेकर पटरी बिछाने वाले सुबह होते ही जब पटरियों को निहारते तो पटरिया उसी अवस्था में रहती जिस अवस्था में मजदूर निकल कर पटरियों को लगाते थे। कहा जाता है कि बाबा के इस चमत्कार ने अंग्रेजों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया और आखिर में वह मजार को छोड़कर पटरिया लगाने को मजबूर हुए। उस वक्त से लेकर आज तक पटरियों के बीच में बाबा की दरगाह मौजूद है और यहां अकीदतमदों की भीड़ भी जमा होती है और लोग कहते है कि बाबा की दुआ से सब कुछ ठीक हो जाता है। 1930 से लेकर अब तक पटरियों के बीच में मौजूद दरगाह और लोगों की भीड़ यह बताने के लिए काफी है कि यहां कुछ न कुछ तो है। यहीं एक और बुजुर्ग की भी मजार है।


    14. दरगाह हजरत कंकड़ शाह, हजरत तोता मैना शाह व अन्य मजारें
    सरजमीं-ए-गोरखपुर के हर हिस्से में बुजुर्गों व शहीदों की मजारें है। गोल्फ ग्राउंड रेलवे आफिस के निकट दरगाह हजरत कंकड़ शाह अलैहिर्रहमां है। रबीउल अव्वल की 24 व 25 तारीख को उर्स-ए-पाक अकीदत से मनाया जाता है। दरगाह से सटे  बेलाल मस्जिद भी है।

    गोलघर में हजरत तोता- मैना शाह की दरगाह है। यहां अकीदत से उर्स मनाया जाता है। लोगों का कहना है कि बाबा के निकट बहुत ही अधिक संख्या में तोता-मैना पक्षी रहा करते थे, बाबा उन पक्षियों से प्रेम करते थे, इसी कारण इस मजार का नाम तोता-मैना पड़ा।

    इलाहीबाग बंधे के किनारे हजरत सूफी जमीर अहमद शाह अलैहिर्रहमां की मजार है। यह पिपरापुर के रहने वाले थे। बहुत परेहजगार व इबादतगुजार थे। हाफिजे कुरआन थे। यह दुआ के जरिए लोगों की परेशानी दूर किया करते थे। आपका निधन 30 अप्रैल 1988 ई. को हुआ। रमजान शरीफ में हर साल खिराजे अकीदत पेश करने वालों का मजमा लगा रहता है। 

    नसीराबाद निकट राज आई हास्पिटल के पास हजरत दादा मियां अलैहिर्रहमां का मजार है। यहां लोगों की मुराद पूरी होती है। इस्माईलपुर में हजरत शाह आलम शाह अलैहिर्रहमां की मजार पर अकीदतमंद आते हैं। बिछिया रामलीला मैदान निकट पीएसी कैम्प के निकट हजरत मुस्तफा अकबर अली शाह अलैहिर्रहमां की दरगाह है। यहां हर साल दो दिवसीय उर्स-ए-पाक अकीदत से मनाया जाता है। बक्शीपुर स्थित चिश्तिया मस्जिद के समीप हजरत दीवान लाडले शाह अलैहिर्रहमां की दरगाह है। माधोपुर में दरगाह सुब्हान शहीद है। यहां कब्रिस्तान भी है। पूर्व राज्य सरकार ने यहां बाउंड्री करवायी थी। लालडिग्गी स्थित बंधे के पास मामू-भांजे की मजार है। यहां छोटी सी मस्जिद भी कायम है। बेतियाहाता मोहल्ले में सैयद बाबा की मजार है। जो दो सौ साल पुरानी है। थवई पुल बक्शीपुर के पास कदमे रसूल (पैगंबर-ए-इस्लाम के कदम के निशान) है वहीं थोड़ी दूरी पर हजरत बाबा सैयद शहाबुद्दीन शहीद अलैहिर्रहमां की मजार है। शीशमहल जाफरा बाजार में हजरत बाबा सैयद गाजी मोमिन शीश अली शाह अलैहिर्रमां की मजार है। मोहल्ला खरादी टोला (तुर्कमानपुर) में मस्जिद से सटे हजरत हाजी सैयद जमाल शाह अलैहिर्रहमां की मजार है। मस्जिद इन्हीं की बनवाई  हुई है। इसी तरह मकबरे वाली मस्जिद बनकटीचक के बगल में मौजूद मकबरा हजरत कादीर बख्श शाह अलैहिर्रहमां का है। आपका निधन 23 रमजानुल मुबारक 1335 हिजरी में हुआ। हजरत सैयद अब्दुल्लाह शाह अलैहिर्रहमां  (निधन 20 जिलहिज्जा 1305 हिजरी) व उनके साहबजादे हजरत सैयद अब्दुर्रज्जाक अलैहिर्रहमां की मजार मोहल्ला पहाड़पुर की मस्जिद में है। बक्शीपुर में मल्ल हास्पिटल के पास हजरत कमाल शाह अलैहिर्रहमां की मजार है। जहां शाही जुलूस के दौरान मियां साहब फातिहा पढ़ते हैं। बरगदही में आस्ताना शहीद बाबा मशहूर है। डोमिनगढ़ में हजरत सैयद लतीफ शाह अलैहिर्रहमां (उर्स 27 जिलहिज्जा), बसंतपुर सराय में हजरत सूफी सैयद नसीर शाह अलैहिर्रहमां, बसंतपुर नरकटिया में फकीर अब्दुल गफूर शाह, खूनीपुर पानी की टंकी के पास शहीद गुलरिया पीर, गोड़धईया पुल के समीप हजरत बाबा जाफ़र अली शाह मासूम, बंधे पर निकट लालडिग्गी हजरत चीनी बख्श अलैहिर्रहमां, इस्माईपुर काजी जी की मस्जिद के पास हजरत इस्माईल शाह अलैहिर्रहमां, खूनीपुर चौक पर हजरत शाह पहाड़ बाबा, इस्माईलपुर में हजरत बहलोल शाह, मिट्ठू शाह, मासूम बाबा, रेती पर शहीद अब्दुल हक, मानीराम से पहले नौ गजे पीर, मिर्जापुर में हजरत चारयारी शाह अलैहिर्रहमां (उर्स जिलकादा की 27, 28 व 29 तारीख) की मजार है। इसके अलावा भुआ शहीद शाह मारूफ आदि में और भी कई बुजुर्गों की मजार है। 



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